Monday, May 16, 2016

शिप्रा नदी के घाट पर भए संतन की भीड़

उज्जैन में लगे सिंहस्थ कुंभ में संतों की भिड़ंत और उसमें भी गोलीबारी ने तो उनके होने की परिभाषा ही बदल डाली। अब तक पढ़ता आया हूं  - जात न पूछो साधु की, पूछ लीजो ज्ञान। मोल करो तलवार की, पड़ा रहन दो म्यान। लेकिन यहां यह क्या उपाधि लेने-देने से लेकर पहला स्नान करने तक की बात पर ही संतों ने तमंचे निकाल लिए और करा दिया प्रशासन को डिस्को। भाई गंगा-जमुनी की संस्कृति वाले इस देश में तो पहले आप, नहीं पहले आप वाली बात रही है। यह बात भी किसी आम आदमी ने कही बल्कि संतों ने ही आम आदमी को समझाया था। फिर यही लोग बवेला मचाने लगे हैं। सब  गडमड हो रहा है। ये संत अपने नाम के आगे श्री श्री 1008, जगत्गुरु, शंकराचार्य, करपात्री, बापू, संत, महामंडलेश्वर और न जाने कौन-कौन सा प्रत्यय और उपसर्ग जोड़े जा रहे हैं। ना तो इन्हें कोई रोकने वाला है और ना ही कोई बोलने वाला। भला इन्हें कुछ भी कहने का खतरा कौन मोल ले।
कुंभ ही क्यों
मैं आज तक यह नहीं समझ पाया कि आखिर कुंभ के मेले में ही इनकी भिड़ंत क्यों होती है? जबकि सांसरिक ज्ञान के अनुसार, कुंभ के मेले में अक्सर भाई बिछड़े होते हैं। ये संत तो स्वयं घरवालों से बिछड़कर यहां आते हैं तो फिर लड़ाई किस बात की? पद्वी पाने या नाम धारण करने की प्राचीन और बेहतर परम्परा शास्त्रार्थ की रही है, लेकिन अब ऐसा कुछ देखने को नहीं मिल रहा है। 
पहले परोकार, अब कारोबार
संत हमेशा से परोकारी रहे हैं, लेकिन बदलते परिवेश ने उन्हें कारोबारी बना दिया है। उदाहरण ना भी दूं तो चार-पांच के नाम तो आप स्वयं तय कर लेंगे जिनके कारोबार भारतीय रुपए में छोड़ दें तो डॉलर में भी करोड़ों डॉलर के जरूर होंगे। कोई सोने-चांदी से लकदक है तो कोई अगरबत्ती-धूप-चंदन और मैग्जिन से ही इतनी कमाई कर रहा है कि उनका वैभव सात समंदर पार तक दिखता है। कुंभ में ही देखिए महापंडितों के पास विदेशी गाडिय़ों की संख्या किसी फिल्मी सितारे या फिर नामी-गिरामी खिलाडिय़ों से कतई कम नहीं है। दान-पुण्य का सिलसिला हमारे यहां इतना है कि हम मूर्तियों को भी स्वर्णजडि़त कर देते हैं ये तो फिर भी जीते-जागते इंसान हैं! 
तो हम किसे पूजें?
हमारे लिए सबसे बड़ा सवाल कि किसे पूजें? कोई संत दुष्कर्म के आरोप में तो कोई बम विस्फोट के आरोप में जेल में सजा काट रहे हैं। कई और बाबाओं पर कुछ ना कुछ आरोप लगते रहे हैं। कुछ बाबा ऐसे हैं जो ख्याति अर्जित करने के लिए ऐसे बयान दे डालते हैं जिनका ना तो सिर होता और ना ही कोई पैर। ऐसी बातें समाज को समरस कभी नहीं बना सकतीं। और तो और कोई फिल्म बनाकर अपनी कीर्ति स्थापित करना चाहते हैं एक साध्वी ऐसी हैं जो भगवान को रिझाते-रिझाते भक्तों की गोद में बैठ उन्हें रिझाने लगती हैं। भला ऐसे में अनुयायी किस प्रकार का ज्ञान अर्जन करेंगे और किसे पूजेंगे?

Friday, August 7, 2015

बहुत प्यार करती हूं

बहुत प्यार करती हूं
हर पल याद करती हूं।
पर्स में तुम्हारी फोटो है
जब भी जी चाहा
देख लेती हूं।
कल मेरी आंखों में
यूं ही आंसू आ गए
लगा तुम्हें कोई दर्द है।
गला भी अचानक
सूखने लगा
जैसे तुम्हें प्यास लगी हो।
मन को बहुत मनाया कि
सबकुछ ठीक होगा,
व्यर्थ में चिंता करती हूं।
अब कुछ भी तो नहीं रहा
हमारे और तुम्हारे बीच
फिर क्यों तुम्हें
याद करती हूं।
सच कहूं, बुरा तो नहीं मानोगे
मैं, तुमसे अब भी प्यार करती हूं।
मैं निस्तब्ध सुन रहा था
जवाब के लिए
शब्द ढूंढ रहा था।
आखिर क्या करता
फैसला अकेले का नहीं था
दोनों ने पहले ही
सहमति बना ली थी।
प्यार के लिए
मां-बाप को नहीं
छोड़ सकते थे
ना ही बिना इजाजत
शादी कर उनको
समाज की तानें
सुनने दे सकते थे।
फिर भी अचानक से
उसका फोन पर
यह कहना
मैं, तुमसे अब भी
प्यार करती हूं
आंखों से गिरे
आंसू के गर्म
बूंद लग रहे थे।

Thursday, May 23, 2013

सिगरेट का धुआं

महंगाई  दिनोंदिन बढ़ती जा रही
जैसे बढ़ता था सुरसा का शरीर
रुकने का कोई नाम नहीं
गद्दी पर बैठे हैं कई 'बालवीर'
कहीं दिखाई देती मंथरा
तो कहीं दिखती केकयी।
' सूर्पनखा' भी कम नहीं
यहाँ की ' राज' सभा में
जब देखो तब
किसी के पक्ष में
करती है अपना मतदान.
जनता की कमाई का
आधा हिस्सा तो
बजट में फूँक डालते हैं
बाकी बचे को भी
अपनी एसी कार की टंकी
में डाल देते हैं।
बेचारे इन ' जन' को
क्या मिलता है?
छोटा वाला सिगरेट
मुंह से लगा सुलगाते हैं
और कुछ ही पल में
जिन्दगी को धुंए का
छल्ला बना उड़ाते हैं।

Monday, May 14, 2012

माँ और बच्चा

जन्म लेने से पहले ही
पेट मे लात मारता  है बच्चा
बिना परवाह किये ही
अपना हिस्सा लेता है बच्चा।
जन्म लेने के बाद माँ की
छाती से चिपकता है बच्चा
जिंदा रहने के लिए भी
माँ का दूध पिता है बच्चा।
वर्णमाला सीखने  से पहले
माँ बोलता है बच्चा
माँ सामने नहीं देखकर
रोने लगता है बच्चा।
माँ की दो अंगुलियाँ थामकर
धरती पर पग धरता  है बच्चा
रिश्ते नाते इनको भी
माँ से ही सीखता है बच्चा।
इमदाद के लिए भी
माँ पुकारता है बच्चा
जब दौड़ती है माँ तो
खिलखिलाता है बच्चा।

बच्चे को तैयार कर
स्कूल भेजती है माँ
हल्की  चोट लगने पर भी
रोने लगती है माँ।
भूख प्यास सबकी
चिंता करती है माँ
भूखी रहकर भी बच्चों का
पेट पलती है माँ।
बच्चे को हर पल बड़ा
होता देखती है माँ
देर से घर आने को
खूब समझती है माँ।
सच बोलने मे  भी
झूठ पकडती है माँ
ठेस पहूँचाने पर भी
गले लगाती है माँ।

घर मे  बहू आने पर
चितचोर होती है माँ
आपनी अनदेखी पर भी
चुप रहती है माँ।
अब चार शाम की जगह
दो शाम खाना खाती है माँ
स्वर्ग जैसे घर की जगह
ओल्ड एज होम में दिखती है माँ।
चेहरे पर शून्य भाव लिए
राम नाम भजती  है माँ
बेटा-बहू  की लड़ाई का
मर्म जानती है माँ। 

Thursday, March 29, 2012

सपनों की उड़ान

सपनों को पंख न जाने
कब से लगने लगे थे.
मैंने तो उसे बस देखने
की कोशिश मात्र की थी.
न जाने किस रात को
अचानक से तारों के बीच
जा पहुंचा था मैं.
तैरने लगा था अपने ही
बुने हुए सुनहरे सपनों में
लग रहा था जैसे
सूरज कर रहा था
मेरे ही आने की प्रतीक्षा.
मुझे देखते ही खिल उठा वो
इस नीले आसमान में.
मेरे पलक झपकते ही
छुप गया वो बादलों की ओट में.
मेरे थकने के साथ ही
वो भी ढलने लगा
या फिर यूं कहिये
चाँद को आने देना चाह रहा था
रात होने देने के लिए
ताकि हर कोई देख सके
अपने सपनों की जहाँ को.

Thursday, March 1, 2012

सरहद : अनदेखी लकीर

पता नहीं कैसे बन गए
दो मुल्कों में फासले
सीमाओं पर नहीं दिखता
कहीं मिट्टी के रंगों में अंतर
और ना ही बहती है हवा
उल्टी दिशाओं में.
फिर,
किसने खींच दी
हमारे रिश्तों के बीच
खून की लकीरें.
वही पानी का दरिया
यहाँ हमारी प्यास बुझाता है
वहां जाने के बाद
खेतों में पटवन के
काम आता है.
जिस सूरज के उगने पर
जागतें हैं हम
उसी सूरज के चमकने से
खिलखिलाते हैं वो.
जिस चाँद की रौशनी में
नहलाते हैं हम
उसी चांदनी रात में
घर लौटते हैं वो.
कहीं भी तो नहीं
दिखता है अंतर
फिर,
क्यों तरेरतें हैं
एक दूसरे पर नज़रों को.
जिस कपड़े से ढकते हैं
हम अपना तन
उन्हीं कपड़ों से
ढका होता है उनका मन.
जिन अनाजों से
मिटती है हमारी भूख
वही अन्न के दाने
बनाते हैं उन्हें रसूख.
बताओ मुझे एक भी कारण
हो कहीं जमीं आसमान में अंतर
फिर, क्यों
एक दूसरों की
माँ-बेटी करतें हैं एक.

Tuesday, February 28, 2012

समाज की कसौटी

लाज के मारे झुकी हुई आँखें
पूरे मुखड़े को ढका हुआ
सिर पर चढ़ा पल्लू
कलाई से केहुनी तक
चढ़ी हुई कांच की
सतरंगी चूड़ियाँ
पैर की अंगुरियों में
कसी हुई चमकती बिछिया
हमारी सभ्यता की सांचे में
कसी हुई नारी की
यही परिभाषा है.
पर, इन्हें देखने वालों का
कुछ नजरिया भी अलहदा है
मुलायम कूचियों से
खिची गई रेखा
चेहरे पर अंगूठे
के सहारे बनाया दाग
हाथ के छिटकने से
तस्वीर पर पड़ी छीटें
कहीं आँखों में लगे
मोटे काजर को पसारते
मानों दर्द के ढबकने से
बाहर आते-आते रह गए।
किसी एक ने देखा तो
दर्द को महसूसते
चित्रकार को बधाई दी
प्रदर्शनी देखने आई भीड़ भी
मर्दानगी का दामन
छोड़ नहीं पाई
दबी, कुचली और फिर
वारांगना या वारवधू
कहने पर भी "ना' मर्दों का
मुंह बंद नहीं करा पायी।